खुश हो लिए तुम तीन बार तलाक कह कर,
पता है मन भर गया है तुम्हारा साथ रह कर।
एक पल को भी नहीं सोचा कहाँ जाऊँगी मैं,
क्या तुम्हारा दिया यह दुःख सह पाऊँगी मैं।
सबने मंजूरी दे दी तलाक को बिना इजाजत,
खुदा का भी खौफ रहा नहीं आएगी कयामत।
क्या भविष्य रहेगा मेरे बच्चों का नहीं सोचा,
जिस्म को क्या तुमने मेरी रूह को भी नोचा।
बोलो कोई तो क्यों मैं बार बार निकाह पढ़ाऊँ,
कोई पशु नहीं हूँ जो हर रोज खूँटे बदले जाऊँ।
क्या होगा जब दूसरे तीसरे का मन भर जाएगा,
बूढ़ी हो जाऊँगी ऐसे ही मैं, कौन साथ निभाएगा।
तलाक के साथ मेहर देकर अहसान जताते हो,
साथ में जवानी के वो साल क्यों नहीं लौटाते हो।
बराबरी का दर्जा मुझे भी चाहिए ये मेरा हक है,
गलत फायदा उठा रहे हो तुम कोई नहीं शक है।
मेरी जिंदगी का फैसला दूसरे करें ये मंजूर नहीं,
जब बदला जाएगा रिवाज अब वो दिन दूर नहीं।
सुलक्षणा एक साथ लड़नी होगी ये लड़ाई हमें,
वरना जीने नहीं देंगे चैन से ये मर्द अन्यायी हमें।
डाॅ सुलक्षणा अहलावत की ये कविता हमें तीन तलाक के उपजे दर्द और मार्मिक स्थिति को उजागर करती है। मेरी एक मुस्लिम फ्रेंड बाजमी से मेने जब पुछा कि क्या तीन तलाक जायज है तो उसने भी साफ शब्दों मे इसका विरोध किया।
तलाक.....तलाक....तलाक..... ये तीन शब्द वो भी रिपेटेड... यहीं से बुरे दिनों की शुरूआत होती है..... हालांकी आपको हक बनता है कि आप अपने हमसफर के साथ अच्छे सम्बंध नहीं रखते हैं तो नारकिय जिन्दगी जिने के बजाए तलाक ले सकते है और अकेले जीवन व्यापन कर सकते है। स्वाभीमानी हो तो आपको गुजारा भत्ता भी लेने की जरूरत नहीं। लेकिन ध्यान रखीए जिन्दगी सेट नहीं हो पाएगी। तलाक एक नकारात्मक शब्द हैं इसलिए तलाक के बाद खुश रहने की गुंजाइस तो ना के बराबर है।
असल में तलाक शब्द फारसी भाषा से आया है जब शरीयत कानुन में पैगम्बरों के दीन इसके पक्षकार थे। फारसी में पति-पत्नी के बीच के रिश्ते खत्में होने को तलाक नाम दिया गया तो वहीं ईसाइ धर्म में डिवोस। पर हिन्दु धर्म में तलाक का कोई भी हिन्दी रूपान्तरण नहीं देखा गया। क्योंकि ये संस्कारों वाला देश है। मर्यादाओं वाला धर्म है। नैतिकताओं से लधी भाषा है। बहरहाल कुछ हिन्दी भाषी लोग इसे ‘ सम्बंध विच्छेद’ कहते है। पर मूल शब्द तो वो भी नहीं है।
चलिए आगे बढ़ते है। मैं आज तलाक शब्द को गंभीरता से लिया ब्लाग क्यों लिख रहा हुं। दरअसल पुरे देश में हर तंत्र पर एक बहस छिड़ी है। वो है- क्या इस्लाम में तीन तलाक जायज है???
मैं फिर कहता हुं तलाक एक बुरा शब्द है। ईस्लाम खुद इसका विरोध करता है। शादी एक शहर नहीं है जहां हम कुछ दिनों के लिए घुमने जाएं और फिर वापस लौट आए। शादी बंधन है। शादी जिम्मेदारी है। शादी हमसफर का प्यार है। शादी जिन्दगी जिने के लिए भविष्य का पड़ाव है। तो भला कौन चाहेगा कि आगे सम्बंध बिगड़े और हम तलाक ले ले। लेकिन कुछ महान बु़िद्धजिवी है जो जरा सी बात पर हमसफर से झगड़ा क्या हुआ उसी वक्त आवेश में तलाक शब्द को तीन बार रिपीड कर देतेे है। अब ये बताया जाए कि क्या ये सही है। थोथी गुस्सें मे व्हाट्सएप्प पर तलाक। जरा सी नाराजगी में तलाक। और हैरत की बात है कि ये सारे अधिकार सिर्फ पुरूषों को है। पुरूष प्रभुत्व का एक और उदाहरण तो यहां देखने को मिला है। क्या नारी को जिने का हक नही??? क्या औरत सिर्फ भोग की वस्तु है??? क्या पुरूष के पास श्रृष्टी को चलाने का अधिकार है??? बेहद शेमफुल। इन तीन शब्दों से महिलाओं की जिन्दगी बरबाद हो जाती है। उन्हें गिफ्ट में आसुं मिलते है। शरीयत कम से कम इस बात पर ध्यान दे। हर बात पर ईस्लाम खतरे में नही आता । बाप-दादा ने मकान बनाया है तो पुनर्निर्माण हमें ही करना है.... जन्नत से बाप दादा नहीं आएगंे उठकर। और ये तो मांइड में बिठा लेने वाला सत्य हैं कि मकान बना दिया गया है तो 100 साल बाद वो जर्जर हो जाएगा। यहां तो 1400 साल का सवाल है। हिन्दु धर्म में भी तो तमाम तरह की कुरूतियां थी। उनको किसने मिटाया। इन्सान ने ही ना। तो क्या आज हिन्दु धर्म जिन्दा नहीं है। विधवा विवाह, पुनर्विवाह लागु करने से क्या हिन्दु धर्म मर गया। सती प्रथा पर बैन से क्या हिन्दु खतरे में आ गया। ये बात हमकों ही सोचनी है। जो गलत है वो सरासर गलत है। उस पर बहस और विचार होना चाहिए। समिक्षा होनी चाहिए। हर बात पर युं गुस्सा करके दुनिया के सामने शरीयत का ढोल पिटने से कुछ नहीं होगा।
आईये जानते है इस्लाम में तलाक के मायने क्या है।
किसी जोड़े में तलाक की नौबत आने से पहले हर किसी की यह कोशिश होती है कि रिश्ते को टुटने से बचाया जाए। अल्लाह ने कुरान में उनके करीबी रिश्तेदारों और उनका भला चाहने वालों को यह हिदायतें दी है कि वो आगे बढ़े और मामले को सुधारने का प्रयास करें। इसके लिए बड़े-बुजुर्ग आगे आएं। क्योकि यहीं वो मुर्तियां है जो स्थिति में बदलाव करनें मे सक्षम है। अगर फिर भी शौहर या बीवी अलग होना चाहती है तो किसी खास दिन का इंतजार कर दो गवाहों के सामने बीवी को तलाक दे दे। उसे सिर्फ इतना कहना है कि ‘ मैं तुम्हे तलाक देता हुं।’ (कुरान, सुरह निशा 35)
लेकिन यह क्या लोग ना तो खास दिन का इंतजार करते है और ना दो गवाहों का। मन में आया और छोड़ दिया बाण। जो कभी वापस लौट के नहीं आ सकता। लोग जिहालत की हदें पार करते हुए तीन बार क्या नफरत की आड़ में तीन सौ बार तलाक बोल देते है। हद है। ऐसा करने वाला इस्लामी शरीयत कानुन की मजाक उड़ाता है। अगर बीवी गर्भवती है तो कानुन के मुताबिक वो डिलीवरी तक शौहर के घर में ही रहेगी। लेकिन लोग ये भी नहीं समझ पाते। तलाक के बाद पुनः रजामंदी या सुलह भी की जा सकती है इसे इस्लाम में रजु कानुन कहते है। ये जिन्दगी में सिर्फ तीन बार ही किया जा सकता है। ( सुरह ब्रकाहा 229 )
जो गहने और सामान बीवी साथ लेकर आई थी वो बीवी के ही होंगे न की शौहर के।
एक महिला और पुरूष व्यक्तिगत रूप से आपस में सिर्फ तीन बार शादी कर सकेंगे, तीसरे तलाक के बाद कुछ भी हाथ में नही रहेगा।
सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल एक याचिका पर सुनवाई और भारत सरकार द्वारा न्यायालय में अपना पक्ष रखने के बाद देश में तीन तलाक का मुद्दा एक बार फिर चर्चा के केंद्र में है। इस देशव्यापी बहस में लगभग तमाम मुल्ले-मौलवी अपने-अपने तर्कों के साथ तीन तलाक की वर्तमान व्यवस्था के समर्थन में खड़े हैं और भारत सरकार के अलावा मुसलमानों का एक बहुत थोड़ा-सा हिस्सा इसके विरोध में।
मैं शरियत या इस्लामी मजहबी मामलों का कोई जानकार तो नहीं हूं, लेकिन मैंने पवित्र कुरान का जितना अध्ययन किया है, उसके आधार पर कह सकता हूं कि तीन तलाक की व्यवस्था कुरान की हिदायतों के विपरीत और गैर-इस्लामी है।
मुझे समझ नहीं आता कि कुरान की व्याख्याओं पर आधारित तीन तलाक का वर्तमान नियम स्त्रियों के प्रति इतना निर्मम क्यों है कि मर्द जब चाहे एक बार में तीन तलाक बोलकर अपनी बीवी को जिन्दगी के उसके हिस्से के सफर में अकेला और बेसहारा छोड़ दे। कामकाजी औरतें अपने प्रयास से शायद इस पीड़ा से उबर भी जाएं, पति पर पूरी तरह आश्रित और बाल बच्चेदार औरतों के लिए तलाक के बाद की जिन्दगी कितनी कठिन होती होगी, इसकी कल्पना भी डराती है।
क्षणिक भावावेश से बचने के लिए तीन तलाक के बीच समय का थोड़ा-थोड़ा अंतराल जरूर होना चाहिए। यह भी देखना होगा कि जब निकाह लड़के और लड़की दोनों की रजामंदी से होता है, तो तलाक का अधिकार सिर्फ पुरुष को ही क्यों दिया जाता है?
वैसे अपने देश में भी अब तीन तलाक के वर्तमान तरीके में सुधार के लिए मुस्लिम औरतों के बीच से ही नहीं, मुस्लिम मर्दों के बीच से भी आवाजें उठने लगी हैं। बहुत सारी औरतों ने अपने अधिकार के लिए देश के सर्वोच्च न्यायालय की शरण ली है। देश की मीडिया में भी वे अपनी बातें मजबूती से रखने लगी हैं।
फिलहाल प्रतिरोध का यह स्वर बहुत प्रखर और व्यापक नहीं हैं, लेकिन शिक्षा और जागरूकता बढ़ने के साथ इसमें दिन-ब-दिन इजाफा ही होने वाला है। भारत के मुसलमानों मे ही पता नहीं क्या मानसिकता है। 21 इस्लामिक देश सहित सऊदी अरब और पाकिस्तान में भी तीन तलाक बैन है तो क्या वो कमतर मुसलमान है??????
मिस्र ने सबसे पहले 1929 में ही तीन तलाक पर प्रतिबंध लगा दिया था।
मुस्लिम देश इंडोनेशिया में तलाक के लिए कोर्ट की अनुमति जरूरी है। यहां पर तलाक के लिए आवेदन मिलने के तीन महीने तक अदालत दोनों को फिर से मिलाने का प्रयास भी करती है। ईरान में 1986 में बने 12 धाराओं वाले तलाक कानून के अनुसार ही तलाक संभव है। 1992 में इस कानून में कुछ संशोधन किए गए इसके बाद कोर्ट की अनुमति से ही तलाक लिया जा सकता है! कट्टरपंथी समझे जाने वाले ईरान में भी महिलाओं को भी तलाक देने का अधिकार है। इराक में भी कोर्ट की अनुमति से ही तलाक लिया जा सकता है। तुर्की ने 1926 में स्विस नागरिक संहिता अपनाकर तीन तलाक की परंपरा को त्याग दिया साइप्रस में भी तुर्की के कानून को मान्य किया गया है। अत यहां भी तीन तलाक को मान्यता नहीं है।
एक कहानी बताता हुं। आफरीन उत्तराखंड के काशीपुर की रहने वाली हैं. बचपन में ही आफरीन के अब्बू का इंतकाल हो चुका था. उनके बड़े भाई की भी मौत हो चुकी है. पढ़ने में हमेशा अव्वल रहने वाली आफरीन ने एमबीए करने के बाद एक वैवाहिक वेबसाइट के जरिए इंदौर के एडवोकेट से निकाह किया था. शादी के एक साल बाद ही उनकी अम्मी का भी इंतकाल हो गया. इसके बाद काशीपुर में उनका घर छूट गया. घर में किसी के न होने की वजह से जयपुर स्थित मामा का घर ही उनका मायका बन गया. मां की मौत के बाद जयपुर अपने मायके आईं आफरीन के पैरों तले जमीन तब खिसक गई जब उन्हें शौहर का भेजा हुआ स्पीड पोस्ट मिला. उसमें लिखा था कि मैं तुम्हें तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कहता हूं क्योंकि तुम मेरे घरवालों से ज्यादा खुद के घरवालों का ख्याल रखती हो और मुझे शौहर होने का सुख नहीं देती. अब आफरीन ने स्पीड पोस्ट से तीन बार तलाक लिखकर तलाक देने के पति के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाई है.
आफरीन का आरोप है कि शादी के बाद से ही उनको दहेज के लिए ताने दिए जाते थे जो बाद में मारपीट में बदल गया. आफरीन की शादी 24 अगस्त 2014 को इंदौर के सैयद असार अली वारसी से हुई थी. 17 जनवरी, 2016 को शौहर ने स्पीड पोस्ट से तीन बार तलाक लिखकर भेज दिया. शायरा बानो के बाद आफरीन देश की दूसरी मुस्लिम महिला हैं जो इस तरह तीन तलाक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंची हैं. सुप्रीम कोर्ट ने राज्य और केंद्र सरकार, महिला आयोग समेत सभी पक्षों को इस मामले में नोटिस भेजकर जवाब मांगा है।
नवंबर, 2015 में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) नाम की संस्था ने एक सर्वे जारी किया. सर्वे में देश के दस राज्यों की तलाकशुदा करीब पांच हजार औरतों से बात की गई. सर्वे में तलाक के तरीके, उनके साथ हुई शारीरिक-मानसिक हिंसा, मेहर की रकम, निकाहनामा, बहुविवाह जैसे कई मुद्दों पर खुलकर बात हुई. जो नतीजे आए, वे बेहद चैंकाने वाले थे. रिपोर्ट में कहा गया कि 92.1 प्रतिशत महिलाओं ने जुबानी या एकतरफा तलाक को गैरकानूनी घोषित करने की मांग की. वहीं 91.7 फीसदी महिलाएं बहुविवाह के खिलाफ हैं. 83.3 प्रतिशत महिलाओं ने माना कि मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए मुस्लिम फैमिली लॉ में सुधार करने की जरूरत है.
तीन तलाक पर एआईएमपीएलबी और सुप्रीम कोर्ट की तकरार के बाद मुस्लिम समाज बंटता नजर आ रहा है. बड़ी संख्या में उलेमा और अल्पसंख्यक संगठन इसके समर्थन में हैं तो दूसरी ओर महिलाओं और समाज के एक तबके की नजर में यह पक्षपातपूर्ण है.
बीएमएमए की सह-संस्थापक नूरजहां सफिया नियाज कहती है, ‘तीन बार तलाक कहने से तलाक होने से बहुत सारी महिलाएं परेशान हैं. फोन पर तलाक हो रहे हैं, वॉट्सऐप पर हो रहे हैं और जुबानी तो हो ही रहे हैं. एक पल में महिला की जिंदगी पूरी तरह से बदल जाती है. जुबानी तलाक एक गलत प्रथा है और महिलाओं के सम्मान के लिए इसे खत्म करना जरूरी है. आप औरतों को कोई वस्तु नहीं समझ सकते. सोचिए ये सब 21वीं सदी में हो रहा है. यहां एक विधि सम्मत कानून की जरूरत है. जो कानून हैं, उनमें सुधारों की जरूरत है.’
उत्तर प्रदेश की पहली महिला काजी हिना जहीर नकवी ने भी तीन तलाक पर प्रतिबंध लगाए जाने की मांग की है. उन्होंने कहा, ‘मैं तीन तलाक की कड़े शब्दों में निंदा करती हूं. यहां तक कि कुरान में इस तरह का कोई निर्देश नहीं दिया गया, जिससे मौखिक तलाक को बढ़ावा दिया जाए. यह कुरान की आयतों का गलत मतलब निकाला जाना है. इसने मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी को खतरे में डाल दिया है.’
ऑल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर भी तीन तलाक का खुलकर विरोध करती हैं. वे कहती हैं, ‘तीन तलाक कुरान शरीफ के कानूनों के खिलाफ है. कुरान शरीफ में एक ही बार में तीन तलाक की बात नहीं कही गई है. ऐसा तरीका जो कुरान के हिसाब से जायज नहीं है उसे स्वीकार नहीं किया जाएगा. जहां तक मामले के सुप्रीम कोर्ट में जाने की बात है, तो हमें देश की सर्वोच्च अदालत पर पूरा भरोसा है. यहां पर मुस्लिम पर्सनल लॉ को ध्यान में रखते हुए फैसले दिए जाते हैं.’
भाजपा के अल्पसंख्यक मोर्चा के राष्ट्रीय प्रभारी फारूक खान का कहना है, ‘इस मसले पर पार्टी की राय मैं नहीं बता सकता, लेकिन मेरा अपना मानना है कि तीन तलाक प्रथा पूरी तरह से गैरइस्लामी है और इसका खात्मा होना चाहिए.’
वहीं अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नजमा हेपतुल्ला का कहना है, ‘इस्लाम में तलाक की इजाजत है पर यह जरूरी नहीं है. ऐसी बहुत सी इजाजते हैं लेकिन जरूरी नहीं कि उनका उपयोग किया ही जाए. तलाक को पैगंबर ने भी अच्छा नहीं माना है. उन्होंने इसे नजरअंदाज करने को कहा है. वैसे भी एक बार में तीन तलाक का जिक्र कुरान में नहीं है. तो यह अपने आप खारिज हो जाता है.’
हमें यह सोचना चाहिए कि क्या तीन तलाक लाजमी है???? जब कुरान में तीन तलाक की सही व्याख्या की गई है तो फिर कुरान को मानने वाले कुरान के अनुसार ही क्यों नही चलते।
पता है मन भर गया है तुम्हारा साथ रह कर।
एक पल को भी नहीं सोचा कहाँ जाऊँगी मैं,
क्या तुम्हारा दिया यह दुःख सह पाऊँगी मैं।
सबने मंजूरी दे दी तलाक को बिना इजाजत,
खुदा का भी खौफ रहा नहीं आएगी कयामत।
क्या भविष्य रहेगा मेरे बच्चों का नहीं सोचा,
जिस्म को क्या तुमने मेरी रूह को भी नोचा।
बोलो कोई तो क्यों मैं बार बार निकाह पढ़ाऊँ,
कोई पशु नहीं हूँ जो हर रोज खूँटे बदले जाऊँ।
क्या होगा जब दूसरे तीसरे का मन भर जाएगा,
बूढ़ी हो जाऊँगी ऐसे ही मैं, कौन साथ निभाएगा।
तलाक के साथ मेहर देकर अहसान जताते हो,
साथ में जवानी के वो साल क्यों नहीं लौटाते हो।
बराबरी का दर्जा मुझे भी चाहिए ये मेरा हक है,
गलत फायदा उठा रहे हो तुम कोई नहीं शक है।
मेरी जिंदगी का फैसला दूसरे करें ये मंजूर नहीं,
जब बदला जाएगा रिवाज अब वो दिन दूर नहीं।
सुलक्षणा एक साथ लड़नी होगी ये लड़ाई हमें,
वरना जीने नहीं देंगे चैन से ये मर्द अन्यायी हमें।
डाॅ सुलक्षणा अहलावत की ये कविता हमें तीन तलाक के उपजे दर्द और मार्मिक स्थिति को उजागर करती है। मेरी एक मुस्लिम फ्रेंड बाजमी से मेने जब पुछा कि क्या तीन तलाक जायज है तो उसने भी साफ शब्दों मे इसका विरोध किया।
तलाक.....तलाक....तलाक..... ये तीन शब्द वो भी रिपेटेड... यहीं से बुरे दिनों की शुरूआत होती है..... हालांकी आपको हक बनता है कि आप अपने हमसफर के साथ अच्छे सम्बंध नहीं रखते हैं तो नारकिय जिन्दगी जिने के बजाए तलाक ले सकते है और अकेले जीवन व्यापन कर सकते है। स्वाभीमानी हो तो आपको गुजारा भत्ता भी लेने की जरूरत नहीं। लेकिन ध्यान रखीए जिन्दगी सेट नहीं हो पाएगी। तलाक एक नकारात्मक शब्द हैं इसलिए तलाक के बाद खुश रहने की गुंजाइस तो ना के बराबर है।
असल में तलाक शब्द फारसी भाषा से आया है जब शरीयत कानुन में पैगम्बरों के दीन इसके पक्षकार थे। फारसी में पति-पत्नी के बीच के रिश्ते खत्में होने को तलाक नाम दिया गया तो वहीं ईसाइ धर्म में डिवोस। पर हिन्दु धर्म में तलाक का कोई भी हिन्दी रूपान्तरण नहीं देखा गया। क्योंकि ये संस्कारों वाला देश है। मर्यादाओं वाला धर्म है। नैतिकताओं से लधी भाषा है। बहरहाल कुछ हिन्दी भाषी लोग इसे ‘ सम्बंध विच्छेद’ कहते है। पर मूल शब्द तो वो भी नहीं है।
चलिए आगे बढ़ते है। मैं आज तलाक शब्द को गंभीरता से लिया ब्लाग क्यों लिख रहा हुं। दरअसल पुरे देश में हर तंत्र पर एक बहस छिड़ी है। वो है- क्या इस्लाम में तीन तलाक जायज है???
मैं फिर कहता हुं तलाक एक बुरा शब्द है। ईस्लाम खुद इसका विरोध करता है। शादी एक शहर नहीं है जहां हम कुछ दिनों के लिए घुमने जाएं और फिर वापस लौट आए। शादी बंधन है। शादी जिम्मेदारी है। शादी हमसफर का प्यार है। शादी जिन्दगी जिने के लिए भविष्य का पड़ाव है। तो भला कौन चाहेगा कि आगे सम्बंध बिगड़े और हम तलाक ले ले। लेकिन कुछ महान बु़िद्धजिवी है जो जरा सी बात पर हमसफर से झगड़ा क्या हुआ उसी वक्त आवेश में तलाक शब्द को तीन बार रिपीड कर देतेे है। अब ये बताया जाए कि क्या ये सही है। थोथी गुस्सें मे व्हाट्सएप्प पर तलाक। जरा सी नाराजगी में तलाक। और हैरत की बात है कि ये सारे अधिकार सिर्फ पुरूषों को है। पुरूष प्रभुत्व का एक और उदाहरण तो यहां देखने को मिला है। क्या नारी को जिने का हक नही??? क्या औरत सिर्फ भोग की वस्तु है??? क्या पुरूष के पास श्रृष्टी को चलाने का अधिकार है??? बेहद शेमफुल। इन तीन शब्दों से महिलाओं की जिन्दगी बरबाद हो जाती है। उन्हें गिफ्ट में आसुं मिलते है। शरीयत कम से कम इस बात पर ध्यान दे। हर बात पर ईस्लाम खतरे में नही आता । बाप-दादा ने मकान बनाया है तो पुनर्निर्माण हमें ही करना है.... जन्नत से बाप दादा नहीं आएगंे उठकर। और ये तो मांइड में बिठा लेने वाला सत्य हैं कि मकान बना दिया गया है तो 100 साल बाद वो जर्जर हो जाएगा। यहां तो 1400 साल का सवाल है। हिन्दु धर्म में भी तो तमाम तरह की कुरूतियां थी। उनको किसने मिटाया। इन्सान ने ही ना। तो क्या आज हिन्दु धर्म जिन्दा नहीं है। विधवा विवाह, पुनर्विवाह लागु करने से क्या हिन्दु धर्म मर गया। सती प्रथा पर बैन से क्या हिन्दु खतरे में आ गया। ये बात हमकों ही सोचनी है। जो गलत है वो सरासर गलत है। उस पर बहस और विचार होना चाहिए। समिक्षा होनी चाहिए। हर बात पर युं गुस्सा करके दुनिया के सामने शरीयत का ढोल पिटने से कुछ नहीं होगा।
आईये जानते है इस्लाम में तलाक के मायने क्या है।
किसी जोड़े में तलाक की नौबत आने से पहले हर किसी की यह कोशिश होती है कि रिश्ते को टुटने से बचाया जाए। अल्लाह ने कुरान में उनके करीबी रिश्तेदारों और उनका भला चाहने वालों को यह हिदायतें दी है कि वो आगे बढ़े और मामले को सुधारने का प्रयास करें। इसके लिए बड़े-बुजुर्ग आगे आएं। क्योकि यहीं वो मुर्तियां है जो स्थिति में बदलाव करनें मे सक्षम है। अगर फिर भी शौहर या बीवी अलग होना चाहती है तो किसी खास दिन का इंतजार कर दो गवाहों के सामने बीवी को तलाक दे दे। उसे सिर्फ इतना कहना है कि ‘ मैं तुम्हे तलाक देता हुं।’ (कुरान, सुरह निशा 35)
लेकिन यह क्या लोग ना तो खास दिन का इंतजार करते है और ना दो गवाहों का। मन में आया और छोड़ दिया बाण। जो कभी वापस लौट के नहीं आ सकता। लोग जिहालत की हदें पार करते हुए तीन बार क्या नफरत की आड़ में तीन सौ बार तलाक बोल देते है। हद है। ऐसा करने वाला इस्लामी शरीयत कानुन की मजाक उड़ाता है। अगर बीवी गर्भवती है तो कानुन के मुताबिक वो डिलीवरी तक शौहर के घर में ही रहेगी। लेकिन लोग ये भी नहीं समझ पाते। तलाक के बाद पुनः रजामंदी या सुलह भी की जा सकती है इसे इस्लाम में रजु कानुन कहते है। ये जिन्दगी में सिर्फ तीन बार ही किया जा सकता है। ( सुरह ब्रकाहा 229 )
जो गहने और सामान बीवी साथ लेकर आई थी वो बीवी के ही होंगे न की शौहर के।
एक महिला और पुरूष व्यक्तिगत रूप से आपस में सिर्फ तीन बार शादी कर सकेंगे, तीसरे तलाक के बाद कुछ भी हाथ में नही रहेगा।
सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल एक याचिका पर सुनवाई और भारत सरकार द्वारा न्यायालय में अपना पक्ष रखने के बाद देश में तीन तलाक का मुद्दा एक बार फिर चर्चा के केंद्र में है। इस देशव्यापी बहस में लगभग तमाम मुल्ले-मौलवी अपने-अपने तर्कों के साथ तीन तलाक की वर्तमान व्यवस्था के समर्थन में खड़े हैं और भारत सरकार के अलावा मुसलमानों का एक बहुत थोड़ा-सा हिस्सा इसके विरोध में।
मैं शरियत या इस्लामी मजहबी मामलों का कोई जानकार तो नहीं हूं, लेकिन मैंने पवित्र कुरान का जितना अध्ययन किया है, उसके आधार पर कह सकता हूं कि तीन तलाक की व्यवस्था कुरान की हिदायतों के विपरीत और गैर-इस्लामी है।
मुझे समझ नहीं आता कि कुरान की व्याख्याओं पर आधारित तीन तलाक का वर्तमान नियम स्त्रियों के प्रति इतना निर्मम क्यों है कि मर्द जब चाहे एक बार में तीन तलाक बोलकर अपनी बीवी को जिन्दगी के उसके हिस्से के सफर में अकेला और बेसहारा छोड़ दे। कामकाजी औरतें अपने प्रयास से शायद इस पीड़ा से उबर भी जाएं, पति पर पूरी तरह आश्रित और बाल बच्चेदार औरतों के लिए तलाक के बाद की जिन्दगी कितनी कठिन होती होगी, इसकी कल्पना भी डराती है।
क्षणिक भावावेश से बचने के लिए तीन तलाक के बीच समय का थोड़ा-थोड़ा अंतराल जरूर होना चाहिए। यह भी देखना होगा कि जब निकाह लड़के और लड़की दोनों की रजामंदी से होता है, तो तलाक का अधिकार सिर्फ पुरुष को ही क्यों दिया जाता है?
वैसे अपने देश में भी अब तीन तलाक के वर्तमान तरीके में सुधार के लिए मुस्लिम औरतों के बीच से ही नहीं, मुस्लिम मर्दों के बीच से भी आवाजें उठने लगी हैं। बहुत सारी औरतों ने अपने अधिकार के लिए देश के सर्वोच्च न्यायालय की शरण ली है। देश की मीडिया में भी वे अपनी बातें मजबूती से रखने लगी हैं।
फिलहाल प्रतिरोध का यह स्वर बहुत प्रखर और व्यापक नहीं हैं, लेकिन शिक्षा और जागरूकता बढ़ने के साथ इसमें दिन-ब-दिन इजाफा ही होने वाला है। भारत के मुसलमानों मे ही पता नहीं क्या मानसिकता है। 21 इस्लामिक देश सहित सऊदी अरब और पाकिस्तान में भी तीन तलाक बैन है तो क्या वो कमतर मुसलमान है??????
मिस्र ने सबसे पहले 1929 में ही तीन तलाक पर प्रतिबंध लगा दिया था।
मुस्लिम देश इंडोनेशिया में तलाक के लिए कोर्ट की अनुमति जरूरी है। यहां पर तलाक के लिए आवेदन मिलने के तीन महीने तक अदालत दोनों को फिर से मिलाने का प्रयास भी करती है। ईरान में 1986 में बने 12 धाराओं वाले तलाक कानून के अनुसार ही तलाक संभव है। 1992 में इस कानून में कुछ संशोधन किए गए इसके बाद कोर्ट की अनुमति से ही तलाक लिया जा सकता है! कट्टरपंथी समझे जाने वाले ईरान में भी महिलाओं को भी तलाक देने का अधिकार है। इराक में भी कोर्ट की अनुमति से ही तलाक लिया जा सकता है। तुर्की ने 1926 में स्विस नागरिक संहिता अपनाकर तीन तलाक की परंपरा को त्याग दिया साइप्रस में भी तुर्की के कानून को मान्य किया गया है। अत यहां भी तीन तलाक को मान्यता नहीं है।
एक कहानी बताता हुं। आफरीन उत्तराखंड के काशीपुर की रहने वाली हैं. बचपन में ही आफरीन के अब्बू का इंतकाल हो चुका था. उनके बड़े भाई की भी मौत हो चुकी है. पढ़ने में हमेशा अव्वल रहने वाली आफरीन ने एमबीए करने के बाद एक वैवाहिक वेबसाइट के जरिए इंदौर के एडवोकेट से निकाह किया था. शादी के एक साल बाद ही उनकी अम्मी का भी इंतकाल हो गया. इसके बाद काशीपुर में उनका घर छूट गया. घर में किसी के न होने की वजह से जयपुर स्थित मामा का घर ही उनका मायका बन गया. मां की मौत के बाद जयपुर अपने मायके आईं आफरीन के पैरों तले जमीन तब खिसक गई जब उन्हें शौहर का भेजा हुआ स्पीड पोस्ट मिला. उसमें लिखा था कि मैं तुम्हें तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कहता हूं क्योंकि तुम मेरे घरवालों से ज्यादा खुद के घरवालों का ख्याल रखती हो और मुझे शौहर होने का सुख नहीं देती. अब आफरीन ने स्पीड पोस्ट से तीन बार तलाक लिखकर तलाक देने के पति के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाई है.
आफरीन का आरोप है कि शादी के बाद से ही उनको दहेज के लिए ताने दिए जाते थे जो बाद में मारपीट में बदल गया. आफरीन की शादी 24 अगस्त 2014 को इंदौर के सैयद असार अली वारसी से हुई थी. 17 जनवरी, 2016 को शौहर ने स्पीड पोस्ट से तीन बार तलाक लिखकर भेज दिया. शायरा बानो के बाद आफरीन देश की दूसरी मुस्लिम महिला हैं जो इस तरह तीन तलाक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंची हैं. सुप्रीम कोर्ट ने राज्य और केंद्र सरकार, महिला आयोग समेत सभी पक्षों को इस मामले में नोटिस भेजकर जवाब मांगा है।
नवंबर, 2015 में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) नाम की संस्था ने एक सर्वे जारी किया. सर्वे में देश के दस राज्यों की तलाकशुदा करीब पांच हजार औरतों से बात की गई. सर्वे में तलाक के तरीके, उनके साथ हुई शारीरिक-मानसिक हिंसा, मेहर की रकम, निकाहनामा, बहुविवाह जैसे कई मुद्दों पर खुलकर बात हुई. जो नतीजे आए, वे बेहद चैंकाने वाले थे. रिपोर्ट में कहा गया कि 92.1 प्रतिशत महिलाओं ने जुबानी या एकतरफा तलाक को गैरकानूनी घोषित करने की मांग की. वहीं 91.7 फीसदी महिलाएं बहुविवाह के खिलाफ हैं. 83.3 प्रतिशत महिलाओं ने माना कि मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए मुस्लिम फैमिली लॉ में सुधार करने की जरूरत है.
तीन तलाक पर एआईएमपीएलबी और सुप्रीम कोर्ट की तकरार के बाद मुस्लिम समाज बंटता नजर आ रहा है. बड़ी संख्या में उलेमा और अल्पसंख्यक संगठन इसके समर्थन में हैं तो दूसरी ओर महिलाओं और समाज के एक तबके की नजर में यह पक्षपातपूर्ण है.
बीएमएमए की सह-संस्थापक नूरजहां सफिया नियाज कहती है, ‘तीन बार तलाक कहने से तलाक होने से बहुत सारी महिलाएं परेशान हैं. फोन पर तलाक हो रहे हैं, वॉट्सऐप पर हो रहे हैं और जुबानी तो हो ही रहे हैं. एक पल में महिला की जिंदगी पूरी तरह से बदल जाती है. जुबानी तलाक एक गलत प्रथा है और महिलाओं के सम्मान के लिए इसे खत्म करना जरूरी है. आप औरतों को कोई वस्तु नहीं समझ सकते. सोचिए ये सब 21वीं सदी में हो रहा है. यहां एक विधि सम्मत कानून की जरूरत है. जो कानून हैं, उनमें सुधारों की जरूरत है.’
उत्तर प्रदेश की पहली महिला काजी हिना जहीर नकवी ने भी तीन तलाक पर प्रतिबंध लगाए जाने की मांग की है. उन्होंने कहा, ‘मैं तीन तलाक की कड़े शब्दों में निंदा करती हूं. यहां तक कि कुरान में इस तरह का कोई निर्देश नहीं दिया गया, जिससे मौखिक तलाक को बढ़ावा दिया जाए. यह कुरान की आयतों का गलत मतलब निकाला जाना है. इसने मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी को खतरे में डाल दिया है.’
ऑल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर भी तीन तलाक का खुलकर विरोध करती हैं. वे कहती हैं, ‘तीन तलाक कुरान शरीफ के कानूनों के खिलाफ है. कुरान शरीफ में एक ही बार में तीन तलाक की बात नहीं कही गई है. ऐसा तरीका जो कुरान के हिसाब से जायज नहीं है उसे स्वीकार नहीं किया जाएगा. जहां तक मामले के सुप्रीम कोर्ट में जाने की बात है, तो हमें देश की सर्वोच्च अदालत पर पूरा भरोसा है. यहां पर मुस्लिम पर्सनल लॉ को ध्यान में रखते हुए फैसले दिए जाते हैं.’
भाजपा के अल्पसंख्यक मोर्चा के राष्ट्रीय प्रभारी फारूक खान का कहना है, ‘इस मसले पर पार्टी की राय मैं नहीं बता सकता, लेकिन मेरा अपना मानना है कि तीन तलाक प्रथा पूरी तरह से गैरइस्लामी है और इसका खात्मा होना चाहिए.’
वहीं अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नजमा हेपतुल्ला का कहना है, ‘इस्लाम में तलाक की इजाजत है पर यह जरूरी नहीं है. ऐसी बहुत सी इजाजते हैं लेकिन जरूरी नहीं कि उनका उपयोग किया ही जाए. तलाक को पैगंबर ने भी अच्छा नहीं माना है. उन्होंने इसे नजरअंदाज करने को कहा है. वैसे भी एक बार में तीन तलाक का जिक्र कुरान में नहीं है. तो यह अपने आप खारिज हो जाता है.’
हमें यह सोचना चाहिए कि क्या तीन तलाक लाजमी है???? जब कुरान में तीन तलाक की सही व्याख्या की गई है तो फिर कुरान को मानने वाले कुरान के अनुसार ही क्यों नही चलते।
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